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    Home » “क्या हम आम लोगों से ज़्यादा आदिवासी हैं?”: शेखर कपूर ने पूछा एक तीखा सवाल

    “क्या हम आम लोगों से ज़्यादा आदिवासी हैं?”: शेखर कपूर ने पूछा एक तीखा सवाल

    moksha vermaBy moksha verma05/10/2025No Comments3 Mins Read

    टुडे एक्सप्रेस न्यूज़। रिपोर्ट मोक्ष वर्मा। फ़िल्म निर्माता और कहानीकार शेखर कपूर हमेशा से दुनिया को देखने का एक अनोखा नजरिया रखते हैं। हाल ही में एक विचार-विमर्श में, उन्होंने एक दिलचस्प और विचारोत्तेजक सवाल उठाया: “वे आदिवासी हैं! वे अलग हैं! वे एक टूरिस्ट अट्रैक्शन का केंद्र हैं! पूरी तरह हमसे अलग… सच में?”

    पोस्ट देखें:

    They’re tribal ! They’re different ! They are a tourist attraction! Completely unlike us ..

    Really .. ?

    When I first got to London to study to be a chartered accountant, I was fascinated by the men in the financial districts , that all walked the same way, and in bowler hats… pic.twitter.com/o0WZywnyDt

    — Shekhar Kapur (@shekharkapur) September 28, 2025

    शेखर कपूर अपने शुरुआती दिनों को याद करते हैं, जब वे लंदन में चार्टर्ड अकाउंटेंट की पढ़ाई कर रहे थे, तब उन्होंने पहली बार वहां के वित्तीय ज़िलों (financial districts) में पुरुषों की समानता को गौर से देखा। उन्होंने लिखा, “मैं वित्तीय ज़िलों के पुरुषों को देखकर बहुत प्रभावित हो गया था, जो एक ही तरह से चलते थे, एक जैसे बाउलर हैट और काले सूट पहनते थे… अपने ‘ब्रॉली’ (छाते) को कसकर लपेट कर रखते थे, एक भी किनारा इधर-उधर नहीं। कोई एक-दूसरे को देखता तक नहीं था… और कम्यूटर ट्रेनों में… वे फ़ाइनेंशियल टाइम्स के पन्ने भी ख़ास अंदाज़ में पलटते थे… यह सुनिश्चित करते हुए कि कोई भी सिलवट अपनी जगह से हटी न हो…।” शेखर कपूर को तब एहसास हुआ: “यह एक आदिवासी संस्कृति है! मुझे याद है कि मैंने सोचा था… ये मसाई जनजाति के पुरुषों से कम नहीं हैं।”

    उनका तर्क है कि “हम इंसान मूल रूप से आदिवासी हैं। हम कबीलों में इकट्ठा हो जाते हैं, खासकर जब हम डरे हुए होते हैं… और अपनी आदिवासी वफ़ादारी को अपनी समझ से ज़्यादा बार बदलते हैं।” राजनीति भी, उनके अनुसार, एक जनजातीय व्यवहार है:
    “यहां तक कि लोकतंत्र भी जनजातीय व्यवहार है… देखिए ना, कैसे डेमोक्रेटिक राइट, डेमोक्रेटिक लेफ्ट और मिडिल के बीच गहरी तनाव को देखिए।”

    चाहे वह कला हो या कॉर्पोरेट मूल्यांकन, शेखर कपूर मानते हैं कि हमारे मूल्य निर्धारण की प्रणाली भी जनजातीय सोच के पैटर्न से चलती है। “हम इसे ‘दुर्लभता’ (scarcity) जैसे नाम देते हैं, लेकिन सच में किसी पेंटिंग की कीमत तभी होती है जब कोई खास ‘जनजाति’ उसे मूल्यवान मानती है… और कंपनियों के तथाकथित मूल्यांकन में अचानक वृद्धि… यह आदिवासी व्यवहार ही है जो ऐसे मूल्यांकनों को जन्म देता है जिनका वास्तव में एक विश्वास प्रणाली के अलावा कोई सच्चा वित्तीय आधार नहीं होता।” उनका सुझाव है कि यह व्यवहार हमें रोजमर्रा की ज़िंदगी में भी दिखता है। “जुहू में जब मैं पैदल होता हूँ, तो गाड़ियों को कोसता हूँ — एक ‘पैदल जनजाति’ का सदस्य बनकर… लेकिन जब मैं गाड़ी चला रहा होता हूँ, तो पैदल चलने वालों पर हॉर्न बजाता हूँ। देखिए, हम कितनी जल्दी अपनी जनजाति बदल लेते हैं!”

    शेखर कपूर हमारे मन में एक विचार छोड़ते हैं जो देर तक मन में गूंजता है: यदि हमारी पहचान हर उस समुदाय के साथ बदलती रहती है जिसमें हम शामिल होते हैं, तो शायद उनका सबसे तीखा सवाल भी सबसे सरल है – “क्या हम व्यक्ति से अधिक आदिवासी हैं?”

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