आयु के पथ पर विवश मेरे चरण बढ़ते गए : कवि, जगभान सिंह

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कवि, जगभान सिंह-कानपुर

आयु के पथ पर विवश मेरे चरण बढ़ते गए,
हाय रे, मेरे सहज, तुम दूर होते गए,
बहुत मुद मुद कर बुलाया देखता तुमको रहा,
काल गति का विवश बंदी मैं, बिलखता ही रहा,

क्या न था स्वीकार तुमको साथ चलना,
या सदा तुमको स्वयं के पास पाना,
मात्रा मेरे मूढ़ मन की कल्पना !

बुद्धि के जड़ भाव तर्कों में उलझते ही रह गए,
और मैं सहज सुहृदय, दूर होते गए !
मूर्ख मैं, स्थूलदर्शी,
मूर्त तुमको मान बैठा,

तुम सहज सौंदर्य वय सापेक्ष चंचल,
तुम सहज आह्लाद निरहंभाव निश्छल ,
मनः चालित धूर्त लिप्साएँ जगत की,
कुटिल चेष्टाएँ सभी परिपक्व नर की
दूर से तुमको निरखती मान मन में हार,
ज्यों कड़ी अबला किनारे देख सिंधु अपार

स्वार्थ सहचर विश्व पथ पर हर जगह मिलते गए|
देखकर मुझको विपथ हे सुहृद, ओझल हो गए |

देख पाता कौन?
फुल्ल वन बंदूक को
बन बीज राज से अंकुरित हो कर पनपता
जान पाता कौन?
बाल मुख का बोल तुत्तुल
कंठ कर्कश में बदलता
है किसी का वश यहाँ पर
थाम ले जो दौड़कर,
शुष्क सिकता सी सरकती आयु को?

कौन लाख पाता है वय की संधियों को,
यवनिका में पृथक होते जीर्ण तन से |
वर्ष, दिन, पल सब बिखर जाते यहाँ पर,
एक ही निःश्वास के आघात से ||

यह सहसवार्षि अनागल मात्र पलभर का हुआ,
हाथ मलता रह गया, यह वर्तमान ठगा हुआ ||

देख धूसर नग्न तन मां से लजाने जब लगा,
तन से तन को ढांपने की चेष्टा करने लगा |
फूल से उड़ते महकते बोल कोमल कंठ के,
मुरझने झड़ने लगे जब व्याकरण के ताप से ||

डगमगाते जिन पैरों को मार्ग आवश्यक नहीं,
अब सुगम पथ की प्रतीक्षा हेतु ठहरे पग वही |
वासनाएं पट पहन जब लाज निज ढकने लगीं,
सरल निश्छल सहजता से जी चुराने जब लगी ||

झेंप ढकने को सजीली युक्तियाँ उगने लगीं,
सभ्यता, संस्कार, संस्कृति जब हमें बहाने लगी |
तुम अकिंचन त्याग वय की गोद चुपके से गए,
जो प्रतीक्षा में उन्हें स्थान अपना दे गए ||

–कवि, जगभान सिंह-कानपुर

 

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